Sunday, September 11, 2011





उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊ के लोगो में नंदा देवी पर बड़ी आस्था है ......रहस्य और रोमांच से भरी दंतकथाओ में इसका रूप देवी से बढ़कर यहाँ की बेटी बहू एक साधारण युवती के रूप में उभर कर आता है.... एक आम पहाड़ी लड़की की तरह इसकी शादी भी होती है ....वह हर बार मायके से आने के बाद अपने सौरास (ससुराल) जाती है और अपने सगे सम्बन्धियों से बिछड़ने से रूठती भी है.....

नंदा राजजात से जुड़े मानवीय पहलुओ के अनुसार अपने मायके के इलाके चांदपुर से अपने ससुराल के इलाके बधाण में पति शिव के निवास त्रिशूली पर्वत की जड़ तक पहुचने का जिम्मा मायके वालो को निभाना पड़ता है......इसी परम्परा को लेकर वर्षो से नंदा देवी पर्व राज्य में लोग मनाते आ रहे है ..... नंदा राजजात हर साल कुमाऊ और गढ़वाल में धूम धाम से मनाया जाता है .........

गढ़वाल के राजाओ के वक्त इस यात्रा का आयोजन उनके स्वयं के द्वारा होता था जिसकी जिम्मेदारी अब कुवर भाइयो के द्वारा निभाई जाती है .....हर साल यात्रा के दौरान ये लोग सौगात लेकर नंदा देवी के डोले, हेमकुंड जो त्रिशूली पर्वत के शिखर के ग्लेशियर से बना ताल है वहां पर छोड़ आते है ..... इस यात्रा का मुख्य अंग चौसिंग्या ढेबर रहता है जो दूत के रूप में यात्रा पथ में जात की अगुवाई करता है ...... यात्रा से पहले टिहरी नरेश या उनके भाई कुंवर लोग देवी से मनोती मांगते है ... इसके बाद चांदपुर के समीप एक चौसिंघा बकरा पैदा होता है .... जिसे कुंवरो के पुश्तेनी गाव कुबा में लाया जाता है ....इसे खूब सजाया जाता है और आहार देकर पूजा जाता है ......साथ ही रिंगाल के आकर्षक छपरे भी बनाये जाते है ....

इसी तरह कुमाऊ में भी नंदा देवी महोत्सव नैनीताल, अल्मोड़ा समेत कई स्थानों में धूम धाम के साथ मनाया जाता है .....लोग देवी को खूब सजा धजाकर ढोल नगाडो के साथ विदा करते है ....नन्दा का यह उत्सव कई बरसों से मनाया जा रहा है जो यह बताता है देवभूमि में कई प्राचीन परम्पराए आज भी जीवित है.......

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